कोई नहीं चाहता नक्सलवाद खत्म हो, सिर्फ सपने दिखाते है लेकिन समाधान नही करते-आँचलिक ख़बरें-राजेश सिंह बिसेन के साथ कैलाश यादव

Aanchalik Khabre
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गरीबी और भूख के मुद्दे जो नीतियों के निर्माण से उत्पन्न हुए-

अभी हाल ही में हुए मध्यक्षेत्र परिषद की बैठक में केंदरीय गृह मंत्री और चार राज्यों के मुख्यमंत्रियों की उपस्थिति में हुई जिसमें किस मुद्दे पर बात हुई किसी के भी समझ में नहीं आया। यह बैठक पूरी तरह मुद्दे से भटका हुआ नजर आया। नक्सलवाद को खत्म करने के अलावा बाकी सभी बातें हुई है। छत्तीसगढ़ पिछले 30 सालों से अविभाजित मध्यप्रदेश के दौर से नक्सलवाद को झेल रहा है, अलग राज्य बना तो दहेज में नक्सलवाद साथ में मिल गया। सरकारें आई गई लेकिन नक्सलवाद के बढ़ते वर्चस्व को कोई भी रोक नहीं पाया ये अलग बात है कि दावे और चुनावी प्रोपोगंडा बनकर और अधिक जानलेवा हो गया। बस्तर को सरगुजा की तरह नक्सलमुक्त बनाने की एक इक्छा शक्ति किसी भी पार्टी या राजनेता में बलवती नहीं हो पाई। दृढ़ इच्छा शक्ति के अभाव में यह प्रदेश के लिए नासूर बन गया और आज जब जंगल में रहने वाले आदिवासियों को विकास की जरूरत है तो नक्सलवाद रोड़ा बनकर खड़े हो गया। क्या अरबों रुपए के फंड को यूं ही लुटा दिया जा रहा है। विकास के नाम पर बस्तर के साथ आज तक न्याय नहीं हो पाया। न्याय  के इंजतार में बस्तर बूढ़ा हो गया लेकिन नक्सलवाद जवान होता गया। राजनेताओं में अभी भी ईमानदारी से नक्सलवाद को खत्म करने का जज्बा कायम है तो ढिलाई कोताही कहां हो रही है। जो समस्या का समाधान ही नहीं कर पा रही है।

यूं तो सामाजिक जीवन में हर इंसान सुकून भरी जिंदगी जीना चाहता ह, लेकिन अंदाजा लगाइये कि उस व्यक्ति की जिंदगी में कितनी पीड़ा होगी जिसकी हर सुबह-शाम डर में ही गुजरती है। इतना ही नहीं, अगर किसी व्यक्ति को बिना वजह अपनों को खोना पड़े तो, यह न केवल चिंता का विषय है बल्कि, यह बैठकर मंथन करने वाली बात है कि हम कैसे समाज, कैसे परिवेश और कैसे वातावरण में जिंदगी जीने को मजबूर हैं।

पिछले तीन सालों की बात करें तो इस दौरान हुए नक्सली हमलों में हजारों लोगों की मौतें हुईं। वहीं अगर सरकार की मानें तोए नक्सली हमलों में धीरे.धीरे कमी आ रही है और नक्सल प्रभावित इलाके लगातार सिमटते जा रहे हैं।

नक्सलवाद पैर फैलाते रहा –1967 में शुरू हुई इस समस्या को हमारी सरकारें जड़ से मिटाने में अब तक पूरी तरह सफ ल क्यों नहीं रहीं हैं, क्या तकनीकों से लैस हमारे सुरक्षा बल इस समस्या से निपटने में सक्षम नहीं हैं या फि र हमारी सरकारों में राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी है, गौर करें तो, नक्सलवाद परिस्थिति के कारण पैदा हुई एक समस्या है और इसकी पृष्ठभूमि सामाजिक सरोकार से जुड़ी है। लेकिन, बदलते समय के साथ इसके स्वरूप में भी बदलाव आया है और अपने नए अवतार में नक्सलवाद एक राजनीतिक समस्या बन गया है। ऐसे में सवाल है कि क्या नक्सलवाद की वजहों पर काम करने के बजाय सियासी दलों ने इसे शह दिया है। सवाल यह भी है कि सरकार ने इससे निपटने के लिये क्या-क्या पहल की हैं। अगर सरकार की पहल सही दिशा में नहीं हैं तो, इस समस्या का सही हल क्या है।

नक्सलवाद की पृष्ठभूमि-नक्सलवादी विचारधारा एक आंदोलन से जुड़ी हुई है। 1960 के दशक में कम्युनिस्टों यानी साम्यवादी विचारों के समर्थकों ने इस आंदोलन का आरंभ किया था। दरअसल, इस आंदोलन की शुरुआत पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग जिले के गांव नक्सलबाड़ी से हुई थी, इसलिये यह नक्सलवादी आंदोलन के रूप में चर्चित हो गया। इसमें शामिल लोगों को नक्सली कहा जाता है। आपको बता दें कि इस आंदोलन में शामिल लोगों को कभी-कभी माओवादी भी कहते हैं।नक्सलवादी और माओवादी दोनों ही आंदोलन हिंसा पर आधारित हैं। लेकिन, दोनों में फ र्क यह है कि नक्सलवाद बंगाल के नक्सलबाड़ी में विकास के अभाव और गरीबी का नतीजा है जबकि चीनी नेता माओत्से तुंग की राजनीतिक विचारधारा से प्रभावित मुहिम को माओवाद का नाम दिया गया। दोनों ही आंदोलन के समर्थक भुखमरी, गरीबी और बेरोजगारी से आजादी की मांग करते रहे हैं।किसानों पर जमींदारों द्वारा अत्याचार और उनके अधिकारों को छीनना एक पुरानी प्रथा रही है और देश भर में इसके हजारों साक्ष्य मौजूद हैं। लिहाजा, नक्सलबाड़ी के तत्कालीन किसान भी इसी समस्या का सामना कर रहे थे। आजादी के बाद भूमि सुधार की पहलें जरूर हुईं थीं। लेकिन, ये पूरी तरह कामयाब नहीं रहीं। नक्सलबाड़ी किसानों पर जमींदारों का अत्याचार बढ़ता चला गया और इसी के मद्देनजर किसान और जमींदारों के बीच जमीन विवाद पैदा हो गया। लिहाजा, 1967 में कम्युनिस्टों ने सत्ता के खिलाफ  एक सशस्त्र आंदोलन की शुरुआत की और यह अभी तक जारी है। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता चारु मजूमदार ने कानू सान्याल और जंगल संथाल के साथ मिलकर सत्ता के खिलाफ  एक किसान विद्रोह कर दिया था। 60 के दशक के आखिर और 70 के दशक के शुरुआती दौर मे, नक्सलबाड़ी विद्रोह ने शहरी युवाओं और ग्रामीण लोगों दोनों के दिलों में आग लगा दी थी। देखते ही देखते, इस तरह का आंदोलन बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल में आम हो गया और धीरे-धीरे यह ओडिशा, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र तक में फैल गया। आजाद भारत में पहली बार किसी आंदोलन ने गरीब और भूमिहीन किसानों की मांगों को मजबूती दी जिसने तत्कालीन भारतीय राजनीति की तस्वीर बदलकर रख दी।स यह आंदोलन हिंसा पर आधारित है और इसमें धनवानों और सत्ता की मदद करने वालों की हत्या कर देना एक आम बात है। सच कहा जाए तो, अन्याय और गैर बराबरी से पैदा हुआ यह आंदोलन देश और समाज के लिये नासूर बन गया है। लेकिन, चिंता का विषय है कि हमारी सरकारें अभी तक इसकी काट नहीं ढूंढ सकी हैं।

खत्म नहीं होने के मूल कारण-नक्सलवाद अन्याय और गैर बराबरी के कारण पनपा है। देश में फैली सामाजिक और आर्थिक विषमता का एक नतीजा है यह आंदोलन। बात चाहे छत्तीसगढ़ के बस्तर और सुकमा की करें या ओडिशा के मलकानगिरी की, भुखमरी और कुपोषण एक सामान्य बात है। गरीबी और बेरोजगारी के कारण एक निचले स्तर की जीवन शैली और स्वास्थ्य-सुविधा के अभाव में गंभीर बीमारियों से जूझते इन क्षेत्रों में असामयिक मौत कोई आश्चर्य नहीं। लेकिन, वहीं देश का एक तबका अच्छी सुख.सुविधाओं से लैस है। अमूमन यह कहा जाता है कि भारत ब्रिटिश राज से अरबपति राज तक का सफ र तय कर रहा है। वहीं विश्व असमानता रिपोर्ट के अनुसार, भारत की राष्ट्रीय आय का 22 फीसदी भाग सिर्फ  एक फीसदी लोगों के हाथों में पहुँचता है और यह असमानता लगातार तेजी से बढ़ रही है।

अंतर्राष्ट्रीय अधिकार समूह के मुताबिक भारत के एक –फ ीसद लोगों ने देश के 73 फीसदी धन पर कब्जा किया हुआ है। यकीनन इस तरह की असमानताओं में हमेशा असंतोष के बीज होते हैं, जिनमें विद्रोह करने की क्षमता होती है।

यह भी एक सच्चाई है कि ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के अनुसार भ्रष्टाचार सूचकांक में पिछले तीन सालों में हम 5 पायदान फि सल गए हैं यानी कि देश में भ्रष्टाचार की जड़ें गहरी हुईं हैं।

समझना होगा कि भ्रष्टाचार कई समस्याओं की जड़ है जो असंतोष का कारण बनते हैं। इसी साल मार्च महीने में हमने नासिक से मुंबई तक लंबी किसान यात्रा भी देखी। मंदसौर में पुलिस की गोली से पाँच किसानों की मौत की खबर ने भी चिंतित किया था। जाहिर है, कृषि में असंतोष गंभीर चिंता का कारण बन रही है।

ये सभी वो पहलू हैं जो गरीबों और वंचित समूहों में असंतोष बढ़ा रहे हैं और वे गरीबी और भुखमरी से मुक्ति के नारे बुलंद कर रहे हैं। इन्हीं असंतोषों की वजह से ही नक्सलवादी सोच को बढ़ावा मिल रहा है।

दूसरी तरफ , सरकार के कई प्रयासों के बावजूद अभी तक इस समस्या से पूरी तरह निजात नहीं मिलने की बड़ी वजह यह है कि हमारी सरकारें शायद इस समस्या के सभी संभावित पहलुओं पर विचार नहीं कर रही। हालाँकि, सरकार की पहल से कुछ क्षेत्रों से नक्सली हिंसा का खात्मा जरूर हो गया है। लेकिन, अभी भी लंबा सफ र तय करना बाकी है।

नक्सली हिंसा में कितनी कमी आई

नक्सली समस्या को लेकर ढेर सारी चुनौतियों के बावजूद इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में पहले के बरक्स कमी आई है।

गौरतलब है कि 2008 में 223 जिले नक्सल प्रभावित थे लेकिन, तत्कालीन सरकार के प्रयासों से इनमें कमी आई और 2014 में यह संख्या 161 रह गई। 2017 में नक्सल प्रभावित जिलों की संख्या और घटकर 126 रह गई।

गृह मंत्रालय की हालिया रिपोर्ट से पता चलता है कि 44 जिलों को नक्सल मुक्त घोषित कर दिया गया है जबकि 8 नए जिलों में नक्सली गतिविधियाँ देखी जा रही हैं। लिहाजा, नक्सल प्रभावित कुल जिलों की संख्या अब 90 हो गई है। ये सभी जिले देश के 11 राज्यों में फैले हैं जिनमें तीस सबसे ज्यादा नक्सल प्रभावित बताए गए हैं। छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिशा और बिहार को सबसे ज्यादा नक्सल प्रभावित राज्यों की कैटेगरी में रखा गया है। पिछले एक दशक में नक्सली हिंसा में कमी आई है और कई जिलों को नक्सल गतिविधियों से मुक्त भी कराया गया है। लेकिन, गौर करने वाली बात है कि कई नए जिले ऐसे भी हैं जिनमें नक्सली गतिविधियाँ शुरू हो गई हैं।

 गृह मंत्रालय द्वारा जारी आँकड़ों के मुताबिक 8 जिले ऐसे हैं जहाँ पहली दफा नक्सली गतिविधियाँ देखी गई हैं। केरल में ऐसे तीन, ओडिशा में दो और छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश तथा आंध्र प्रदेश में एक-एक जिले पाए गए हैं।

ऐसे में यह सवाल तो उठता ही है कि जब एक तरफ नक्सल प्रभावित क्षेत्रों के सिमटने के दावे हो रहे हैं तो, दूसरी तरफ  नए  जिलों को यह रोग क्यों लग रहा है, लिहाजा, इस पहलू पर भी ध्यान दिये जाने की जरूरत है।

क्या-क्या है सरकारी पहल

नक्सल प्रभावित इलाकों में नक्सली समस्या से निपटने के लिये सरकार समय.समय पर काम करती रही है। हालांकि, इन इलाकों में किसी परियोजना को सफ लतापूर्वक पूरा करना हमेशा ही एक चुनौती रही है।

इंफ ्रास्ट्रक्चर, सड़क, सेलफोन कनेक्टिविटी, पुल, स्कूल जैसे विकास कार्यों पर काम किया जाता रहा है। नक्सल प्रभावित इलाकों में अब तक हजारों की तादाद में मोबाईल टॉवर लगाए जा चुके हैं जबकि कई हजार किलोमीटर सड़क का निर्माण भी हो चुका है।

सबसे अधिक नक्सल प्रभावित सभी 30 जिलों में जवाहर नवोदय विद्यालय और केंद्रीय विद्यालय संचालित किये जा रहे हैं लेकिन, गौर करने वाली बात है कि ये सभी तीस जिले अभी भी सर्वाधिक नक्सल प्रभावित हैं। जून, 2013 में आजीविका योजना के तहत रोशनी नामक विशेष पहल की शुरूआत की गई थी ताकि सर्वाधिक नक्सल प्रभावित जिलों में युवाओं को रोजगार के लिये प्रशिक्षित किया जा सके। लेकिन मार्च, 2015 तक सिर्फ  दो राज्यों बिहार और झारखंड को ही फं ड आवंटित किया जा सका। पिछले ही साल, केंद्रीय मंत्री ने नक्सलवाद को खत्म करने के लिये समाधान नामक 8 सूत्री पहल की घोषणा की है। इसके तहत नक्सलियों से लडऩे के लिये रणनीतियों और कार्ययोजनाओं पर जोर दिया गया है।

हालाँकि, समय-समय पर सभी सरकारों ने इस समस्या से निपटने के लिये कोशिशें तो की हैं लेकिन, फि र भी इस पर पूरी तरह कामयाबी नहीं मिल सकी है।

 अपने वर्तमान रूप में नक्सल आंदोलन ने अपनी प्रकृति और उद्देश्य दोनों में महत्वपूर्ण रूप से बदलाव किया है। एक तरफ जहाँ इस समस्या की वजह आर्थिक और सामाजिक विषमता समझी जाती रही हैए वहीं दूसरी ओर इसे अब एक राजनीतिक समस्या भी समझा जाने लगा है। हालिया छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव में नक्सल समस्या पर राजनीतिक बयानबाजी इसी का एक पहलू है। यही कारण है कि जानकारों की नजरों में नक्सलवाद सियासी दलों का एक चुनावी तवा है जिस पर मौका मिलते ही रोटी सेंकने की कोशिश की जाती है। ऐसा इसलिये भी कहा जाता है क्योंकि, हमारी सरकारें लगातार संविधान की पांचवीं अनुसूची को तरजीह देने से कतराती रही हैं। इस अनुसूची में अनुसूचित क्षेत्रों और अनुसूचित जनजातियों के प्रशासन और नियंत्रण से जुड़े मामले आते हैं। चिंता का विषय है कि आजादी के 70 सालों बाद भी अब तक अनुसूचित क्षेत्रों को प्रशासित करने के लिये कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया है आदिवासियों को अधिकार नहीं मिलने के कारण भी इनमें असंतोष पनपता है और नक्सली इसी का फायदा उठाकर आदिवासियों को गुमराह करते हैं।

इसके अलावा एक समस्या राज्यों के बीच तालमेल की कमी को लेकर है। इसके तहत दो सीमावर्ती राज्यों को नक्सली घटनाओं के मद्देनजर बेहतर सहयोग के साथ काम करने की जरूरत है।

इन सब उपायों के बावजूद, हमारी सरकारों को कतई नहीं भूलना चाहिये कि नक्सलवाद के मूल कारण कुछ और हैं। गरीबी, भुखमरी और बेरोजगारी जैसे मसलों पर जब तक युद्ध स्तर पर काम नहीं होगा, तब तक इस समस्या से निजात नहीं मिल सकती।

हिंसा की घटनाओं के साथ.साथ ग्रामीणों के अधिकारों और उनकी समस्याओं को भी प्रकाश में लाने की जरूरत है। स्थानीय लोगों को भरोसे में लेना और हथियार उठा चुके लोगों से बात कर मसले का हल निकालने की कोशिश करनी होगी।

गरीबी और भुखमरी जैसे मुद्दों पर जोर देने का यह कतई मतलब नहीं है कि ऐसा करना हिंसा का समर्थन करना है लेकिन, क्या यह जरूरी नहीं है कि हर व्यक्ति को संवैधानिक हक मिले, समझना होगा कि हर व्यक्ति सम्मान के साथ रोटी, कपड़ा और मकान जैसी बुनियादी जरूरत पाने का हकदार है। लिहाजा, इसकी पहल करना हर सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिये।

 नक्सलवाद से आर.पार की लड़ाई

नक्सलवाद की समस्या से सर्वाधिक प्रभावित छत्तीसगढ़ राज्य को लेकर केंद्र सरकार भी लगातार चिंता जाहिर करती रही है। गृहमंत्री अमित शाह ने 2022 तक नक्सलवाद के खात्मे का लक्ष्य तय किया है।

 2022 तक नक्सलवाद के खात्मे का लक्ष्य

नक्सलवाद की समस्या से सर्वाधिक प्रभावित छत्तीसगढ़ राज्य को लेकर केंद्र सरकार भी लगातार चिंता जाहिर करती रही है। केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने 2022 तक नक्सलवाद के खात्मे का लक्ष्य तय किया है। इस आंतरिक हिंसावादी समस्या से देश के कई अन्य राज्य भी प्रभावित हैं, लेकिन छत्तीसगढ़ में स्थित कहीं अधिक भयावह है। नक्सलवाद के उन्मूलन को लेकर केंद्र सरकार आक्रामक रुख रखती है, जबकि राज्य सरकार इसका समाधान बातचीत के जरिए चाहती है। इस तरह केंद्र और राज्य के बीच नक्सल उन्मूलन की नीति में भी थोड़े मतभेद रहे हैं। ऐसा माना जाता है कि नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में तीव्र विकास और रोजगार व शिक्षा का स्तर बड़ा कर समस्या का समाधान किया जा सकता है, लेकिन इन आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों में जल-जंगल और जमीन के संरक्षण को लेकर आदिवासी काफ़ी जागरूक हैं। इस वजह से विकास की बड़ी परियोजनाओं का यहां लगातार विरोध भी होता रहा है।

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